कला-संगीत >> भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहासवाचस्पति गैरोला
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भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उपोद्धात
प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय चित्रकला की संक्षिप्त, किन्तु प्रामाणिक एवं
मौलिक ऐतिहासिक अध्ययन निरूपित किया गया है। कला, और विशेष रूप से
चित्रकला विषय माध्यमिक कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर
कक्षाओं तक अध्ययन का विषय है। शिक्षा के क्षेत्र में उसकी अधिकाधिक
उपयोगिता अनुभव एवं स्वीकार की गयी है, और इसलिए विद्यालय से लेकर
विश्वविद्यालय स्तर तक के छात्र-छात्राओं की उसके प्रति गहन अभिरुचि
उत्पन्न हो रही है। शिक्षा के क्षेत्र में चित्रकला विषय की इस वर्द्धनशील
अभिरुचि का कारण एकदेशीय तथा क्षेत्रीय नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
व्यापक मानव समाज द्वारा उसको अधिकाधिक अपनाये जाने तथा मान्यता प्रदान
किये जाने के फलस्वरूप उसके प्रभाव का क्षेत्र उत्तरोत्तर व्यापक होता जा
रहा है।
योरप के देशों के सामान्य समाज तथा शिक्षा के क्षेत्र, दोनों में चित्रकला के प्रति विशेष अभिरुचि के परिणाम स्वरूप समस्त विश्व उससे प्रभावित है। वहाँ उसकी मानव जीवनोपयोगी उपलब्धियों पर गंभीरतापूर्वक विचार हो रहा है। उसकी यह प्रभावकारी प्रतिक्रिया विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों पर त्वरित गति से चरितार्थ हो रही है: और संभवत: यही कारण है कि आज के इतिहासकार तथा कलानुसन्धायक विद्वान नये मान-मूल्यों के आधार पर उसका पुनर्मूल्यांकन करने की दिशा में सचेष्ट एवं अग्रसर हैं। जहाँ तक भारत का संबंध है, वहाँ भी कला के विश्वजनीन पुनर्मूल्यांकन और उसके ऐतिहासिक अवेक्षण की दिशा में जागरुकता परिलक्षित हो रही है। सर्वविदित है कि अतीतकालीन भारत में कला के मानवतावादी पक्ष पर व्यापक रूप से गंभीर विचार हुआ है। उसके विचारों में भले ही भिन्नता रही हो; किन्तु लक्ष्य की एकात्मकता में कोई सन्देह नहीं है। आधुनिक विश्व ने इस दिशा में जो प्रगति की है, चिन्तन और विचार के क्षेत्र में जिन मान-मूल्यों का निर्धारण किया है, उनसे मौलिक रूप में भारतीय दृष्टिकोण की तारतम्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास’ उसने पुराने कलेवर ‘भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त परिचय’ का सर्वथा नवीन और मौलिक रूप है। उसमें इस नाममात्र का ही नवीन और मौलिकरूप है। उसमें इस नाममात्र का ही नवीनीकरण नहीं किया गया है, अपितु विषय-सामग्री के आमूल परिवर्तन द्वारा उसको अधिकाधिक ग्राह्य एवं उपादेय बनाने का भी यथासंभव प्रयत्न किया है। अध्येताओं की सुविधा के लिए विषय-सामग्री के सन्दर्भ में बीच-बीच में और पुस्तक के अन्त में भी विभिन्न विवेचित शैलियों के प्रतिनिधि चित्रों को संयोजित कर दिया गया है। इस संस्करण में सर्वथा नयी सामग्री को भी योजित कर दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय चित्रकला की प्राय: सभी प्रमुख शैलियों, उनकी परम्पराओं और शाखा-प्रशाखाओं का ऐतिहासिक क्रम से विस्तारपूर्वक निरूपण कर दिया गया है। प्रस्तुत पुस्तक को इस रूप में उपनिषद् करने का एकमात्र लक्ष्य यह रहा है कि भारतीय चित्रकला के अध्येताओं एवं छात्र-छात्राओं के उनके उद्देश्य की सामग्री एक साथ उपलब्ध हो सके।
हिन्दी में भारतीय चित्रकला विषयक ऐसी पुस्तकों की प्राय: कमी है, जो अपने-आप में सर्वांगीण हों और सहज रूप में सर्वसामान्य को सुलभ हो सकें। विश्वास है कि इस पुस्तक से जिज्ञासु पाठकों की यह असुविधा दूर हो सकेगी।
इस पुस्तक को अनेक विश्वविद्यालयों ने अपने पाठ्यक्रम में निर्धारित किया है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार शिक्षा निदेशालयों ने भी उसे अपने उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों तथा प्रशिक्षण-केन्द्रों के पुस्तकालयों के लिए स्वीकृत किया है। इसके अतिरिक्त सम्मान्य अध्यापक वर्ग और छात्र-छात्राओं ने भी उसे व्यापक रूप से अपनाया है। उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणाप्रद निर्देशन के फलस्वरूप यह संस्करण इस रूप में प्रस्तुत किया जा सका है।
मैं अपने उस सम्मान्य अध्यापकवर्ग के प्रति आभारी हूँ, जिसने मुझे मौखिक और लिखित रूप में इस पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण तैयार करने के लिए प्रोत्साहित किया है। मैं अपने उन छात्र-छात्राओं के प्रति भी शुभाकांक्षी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक को अपना कर मेरे श्रम को सार्थक बनाया है
योरप के देशों के सामान्य समाज तथा शिक्षा के क्षेत्र, दोनों में चित्रकला के प्रति विशेष अभिरुचि के परिणाम स्वरूप समस्त विश्व उससे प्रभावित है। वहाँ उसकी मानव जीवनोपयोगी उपलब्धियों पर गंभीरतापूर्वक विचार हो रहा है। उसकी यह प्रभावकारी प्रतिक्रिया विश्व के अनेक प्रगतिशील देशों पर त्वरित गति से चरितार्थ हो रही है: और संभवत: यही कारण है कि आज के इतिहासकार तथा कलानुसन्धायक विद्वान नये मान-मूल्यों के आधार पर उसका पुनर्मूल्यांकन करने की दिशा में सचेष्ट एवं अग्रसर हैं। जहाँ तक भारत का संबंध है, वहाँ भी कला के विश्वजनीन पुनर्मूल्यांकन और उसके ऐतिहासिक अवेक्षण की दिशा में जागरुकता परिलक्षित हो रही है। सर्वविदित है कि अतीतकालीन भारत में कला के मानवतावादी पक्ष पर व्यापक रूप से गंभीर विचार हुआ है। उसके विचारों में भले ही भिन्नता रही हो; किन्तु लक्ष्य की एकात्मकता में कोई सन्देह नहीं है। आधुनिक विश्व ने इस दिशा में जो प्रगति की है, चिन्तन और विचार के क्षेत्र में जिन मान-मूल्यों का निर्धारण किया है, उनसे मौलिक रूप में भारतीय दृष्टिकोण की तारतम्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास’ उसने पुराने कलेवर ‘भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त परिचय’ का सर्वथा नवीन और मौलिक रूप है। उसमें इस नाममात्र का ही नवीन और मौलिकरूप है। उसमें इस नाममात्र का ही नवीनीकरण नहीं किया गया है, अपितु विषय-सामग्री के आमूल परिवर्तन द्वारा उसको अधिकाधिक ग्राह्य एवं उपादेय बनाने का भी यथासंभव प्रयत्न किया है। अध्येताओं की सुविधा के लिए विषय-सामग्री के सन्दर्भ में बीच-बीच में और पुस्तक के अन्त में भी विभिन्न विवेचित शैलियों के प्रतिनिधि चित्रों को संयोजित कर दिया गया है। इस संस्करण में सर्वथा नयी सामग्री को भी योजित कर दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय चित्रकला की प्राय: सभी प्रमुख शैलियों, उनकी परम्पराओं और शाखा-प्रशाखाओं का ऐतिहासिक क्रम से विस्तारपूर्वक निरूपण कर दिया गया है। प्रस्तुत पुस्तक को इस रूप में उपनिषद् करने का एकमात्र लक्ष्य यह रहा है कि भारतीय चित्रकला के अध्येताओं एवं छात्र-छात्राओं के उनके उद्देश्य की सामग्री एक साथ उपलब्ध हो सके।
हिन्दी में भारतीय चित्रकला विषयक ऐसी पुस्तकों की प्राय: कमी है, जो अपने-आप में सर्वांगीण हों और सहज रूप में सर्वसामान्य को सुलभ हो सकें। विश्वास है कि इस पुस्तक से जिज्ञासु पाठकों की यह असुविधा दूर हो सकेगी।
इस पुस्तक को अनेक विश्वविद्यालयों ने अपने पाठ्यक्रम में निर्धारित किया है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार शिक्षा निदेशालयों ने भी उसे अपने उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों तथा प्रशिक्षण-केन्द्रों के पुस्तकालयों के लिए स्वीकृत किया है। इसके अतिरिक्त सम्मान्य अध्यापक वर्ग और छात्र-छात्राओं ने भी उसे व्यापक रूप से अपनाया है। उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणाप्रद निर्देशन के फलस्वरूप यह संस्करण इस रूप में प्रस्तुत किया जा सका है।
मैं अपने उस सम्मान्य अध्यापकवर्ग के प्रति आभारी हूँ, जिसने मुझे मौखिक और लिखित रूप में इस पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण तैयार करने के लिए प्रोत्साहित किया है। मैं अपने उन छात्र-छात्राओं के प्रति भी शुभाकांक्षी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक को अपना कर मेरे श्रम को सार्थक बनाया है
-वाचस्पति गैरोला
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ऐतिहासिक सर्वेक्षण
कला की उपलब्धि
कला कल्याण की जननी है। इस धरती पर मनुष्य की उदय-वेला इतिहास कला के
द्वारा ही रूपायित हुआ है। कला इस विराट् विश्व की सर्जना शक्ति होने के
कारण सृष्टि के समस्त पदार्थों में व्याप्त है। वह अनन्तरूपा है और उसके
इन अनन्त रूपों की अभिव्यक्ति एवं निष्पत्ति का आधार कलाकार (परमेश्वर)
है। जितने भी तत्त्ववित्, साहित्यसृष्टा और कलाराधक हुए, उन सबने
भिन्न-भिन्न मार्गों का अवलम्ब लेकर उसी एकमेव लक्ष्य का अनुसन्धान किया।
विभिन्न युगों में कला के रूप की परिकल्पना विभिन्न दृष्टिकोणों से की
जाती रही है।
कला को आज जो लोकसम्मान प्राप्त है और सम्प्रति उसको जिस रूप में परिभाषित किया जा रहा है, वह अतीत की अपेक्षा सर्वथा भिन्न है। शिल्प और कला-विषयक प्राचीन ग्रन्थों में कला को ‘हस्तकौशल’, ‘चमत्कार-प्रदर्शन’ या ‘वैचित्र्य’ से बढ़कर दर्जा नहीं दिया गया है; अवश्य ही उसके साहित्य से अलग करके देखा जाता रहा है। उसको ‘वस्तु का रूप सँवारने वाली विशेषता, कहा गया है, जैसा कि क्षेमराज की ‘शिवसूत्रविमर्षिणी’ से स्पष्ट है-‘कलयति स्वरूपं आवेशयति वस्तूनि वा’। किन्तु परवर्ती युगों, और विशेष रूप से वर्तमान समय में कला को जिस रूप में ग्रहण किया जा रहा है उसकी सीमा न तो ‘वैचित्र्य’ या ‘हस्तकौशल’ तक ही सीमित है और न उसका उद्देश्य ‘वस्तु सँवारना’ मात्र है।
कला के लिए ‘कौशल’ कहने की इस सख्ती मनोवृत्ति का प्रचलन तब हुआ, जब उसका एक मात्र उद्देश्य विलासिता तथा मनोरंजन माना जाने लगा। इस प्रकार के सभी कौशल का संबंध मनोरंजन से था; और यद्यपि कला के चौंसठ या इससे भी अधिक भेद करके तब यह माना जाने लगा कि कला का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसके अन्तर्गत ज्योतिष-दर्शन-व्याकरण आदि विद्याओं का भी समावेश हो जाता है, तथापि वास्तव में इस प्रवृत्ति ने कलामान और कलाबोध, दोनों की स्वस्थ गवेषणा एवं स्थापना को व्यर्थ के बौद्धिक विलास में खो दिया। कला-विषयक इस विलासिता की प्रवृत्ति का व्यापक रूप में प्रचार-प्रसार रहा।
किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि समस्त समाज इस सस्ती मनोवृत्ति से अभिभूत था; बल्कि दूसरी ओर कला की धार्मिक तथा आध्यात्मिक परम्पराओं को स्वीकार किये जाने के साथ-साथ उसको व्यावहारिक जीवन में एकरस करने के लिए भी प्रयत्न किये जाते रहे।
कला को आज जो लोकसम्मान प्राप्त है और सम्प्रति उसको जिस रूप में परिभाषित किया जा रहा है, वह अतीत की अपेक्षा सर्वथा भिन्न है। शिल्प और कला-विषयक प्राचीन ग्रन्थों में कला को ‘हस्तकौशल’, ‘चमत्कार-प्रदर्शन’ या ‘वैचित्र्य’ से बढ़कर दर्जा नहीं दिया गया है; अवश्य ही उसके साहित्य से अलग करके देखा जाता रहा है। उसको ‘वस्तु का रूप सँवारने वाली विशेषता, कहा गया है, जैसा कि क्षेमराज की ‘शिवसूत्रविमर्षिणी’ से स्पष्ट है-‘कलयति स्वरूपं आवेशयति वस्तूनि वा’। किन्तु परवर्ती युगों, और विशेष रूप से वर्तमान समय में कला को जिस रूप में ग्रहण किया जा रहा है उसकी सीमा न तो ‘वैचित्र्य’ या ‘हस्तकौशल’ तक ही सीमित है और न उसका उद्देश्य ‘वस्तु सँवारना’ मात्र है।
कला के लिए ‘कौशल’ कहने की इस सख्ती मनोवृत्ति का प्रचलन तब हुआ, जब उसका एक मात्र उद्देश्य विलासिता तथा मनोरंजन माना जाने लगा। इस प्रकार के सभी कौशल का संबंध मनोरंजन से था; और यद्यपि कला के चौंसठ या इससे भी अधिक भेद करके तब यह माना जाने लगा कि कला का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसके अन्तर्गत ज्योतिष-दर्शन-व्याकरण आदि विद्याओं का भी समावेश हो जाता है, तथापि वास्तव में इस प्रवृत्ति ने कलामान और कलाबोध, दोनों की स्वस्थ गवेषणा एवं स्थापना को व्यर्थ के बौद्धिक विलास में खो दिया। कला-विषयक इस विलासिता की प्रवृत्ति का व्यापक रूप में प्रचार-प्रसार रहा।
किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि समस्त समाज इस सस्ती मनोवृत्ति से अभिभूत था; बल्कि दूसरी ओर कला की धार्मिक तथा आध्यात्मिक परम्पराओं को स्वीकार किये जाने के साथ-साथ उसको व्यावहारिक जीवन में एकरस करने के लिए भी प्रयत्न किये जाते रहे।
कला की उत्पत्ति में धर्म की प्रेरणा
कला की उत्पत्ति के मूल में हमें धार्मिक भावना की प्रधानता दिखायी देती
है; प्रागैतिहासिक युग की कलाकृतियों के संबंध में यह बात विशेष रूप से
चरितार्थ होती है। हम देखते हैं कि आदिम युग में मनुष्य ने पार्थिव
वस्तुओं को आध्यात्मिक रूप देने के लिए आकाश, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र,
नदियों, पर्वत, ऋतुओं आदि के रहस्यों को आँकने का यत्न किया। उसने उन सभी
वस्तुओं में एक अदृश्य शक्ति की कल्पना की, जिन वस्तुओं की वह जानकारी
प्राप्त न कर सका था।
न केवल भारत में, बल्कि विश्व की समस्त जातियों की संस्कृति के मूल में धार्मिक भावना की प्रधानता व्यापक रूप में देखने को मिलती है। यूनान, चीन और भारत के लोगों को कला की प्रेरणा प्रकृति से मिली। प्रकृति को तब एक अदृश्य शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया। वेदों के ऋषियों ने प्रकृति के अनेक रूपों की पूजा करके उन्हें देवत्व का स्थान दिया। ये दैवी शक्तियाँ ही बाद में स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि अनेक नाम-रूपों में अभिहित की गयीं।
धर्म के प्रति मनुष्य की स्वाभाविक रुचि को दृष्टि में रखकर ही भारतीय चित्रकला का निर्माण हुआ। प्रागैतिहासिक युग के जितने भी कलावशेष प्राप्त हुए हैं, उनका अध्ययन-परीक्षण करने पर स्पष्ट रूप से यह तथ्य प्रकाश में आया है कि भारत की आदिम मानव-सभ्यता में कला का सृजन ऐसे रहस्यों एवं उत्कंठाओं को आधार मानकर हुआ है, जिनका सम्बन्ध पारलौकिक था और जिनमें किसी सर्वोपरी अदृष्ट शक्ति या नियन्ता का अधिष्ठित होना स्वीकार किया गया है। अतएव, जाने या अनजाने, जैसा भी संभव हुआ हो, इस देश की आदिम मानव-सभ्यता में कला, विशेष रूप से चित्रकला को, आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के रूप में स्वीकार किया गया।
हमारे शास्त्रों में धर्म से ही नि:श्रेयम् की प्राप्ति होनी बतायी गयी है। हमारे कलाकारों ने अपनी कृतियों में इसी नि:श्रेयस् का साक्षात्कार किया है। वस्तुत: यही कारण है कि कला के जिन भग्नावशेषों को देखकर आज भी हम अवाक् रह जाते हैं, उनमें निर्माता कलाकारों की यही श्रेयबुद्धि निहित है।
न केवल भारत में, बल्कि विश्व की समस्त जातियों की संस्कृति के मूल में धार्मिक भावना की प्रधानता व्यापक रूप में देखने को मिलती है। यूनान, चीन और भारत के लोगों को कला की प्रेरणा प्रकृति से मिली। प्रकृति को तब एक अदृश्य शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया। वेदों के ऋषियों ने प्रकृति के अनेक रूपों की पूजा करके उन्हें देवत्व का स्थान दिया। ये दैवी शक्तियाँ ही बाद में स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि अनेक नाम-रूपों में अभिहित की गयीं।
धर्म के प्रति मनुष्य की स्वाभाविक रुचि को दृष्टि में रखकर ही भारतीय चित्रकला का निर्माण हुआ। प्रागैतिहासिक युग के जितने भी कलावशेष प्राप्त हुए हैं, उनका अध्ययन-परीक्षण करने पर स्पष्ट रूप से यह तथ्य प्रकाश में आया है कि भारत की आदिम मानव-सभ्यता में कला का सृजन ऐसे रहस्यों एवं उत्कंठाओं को आधार मानकर हुआ है, जिनका सम्बन्ध पारलौकिक था और जिनमें किसी सर्वोपरी अदृष्ट शक्ति या नियन्ता का अधिष्ठित होना स्वीकार किया गया है। अतएव, जाने या अनजाने, जैसा भी संभव हुआ हो, इस देश की आदिम मानव-सभ्यता में कला, विशेष रूप से चित्रकला को, आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के रूप में स्वीकार किया गया।
हमारे शास्त्रों में धर्म से ही नि:श्रेयम् की प्राप्ति होनी बतायी गयी है। हमारे कलाकारों ने अपनी कृतियों में इसी नि:श्रेयस् का साक्षात्कार किया है। वस्तुत: यही कारण है कि कला के जिन भग्नावशेषों को देखकर आज भी हम अवाक् रह जाते हैं, उनमें निर्माता कलाकारों की यही श्रेयबुद्धि निहित है।
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